विवाह एवं अग्नि परिग्रह संस्कार


विवाह संस्कार, वह संस्कार है, जिससे संस्कृत होकर मनुष्य वेद-लोक-प्रजा- धर्म इन चारों संस्थाओं के प्रति अपने धर्म सम्मत कर्त्तव्य का सम्पादन करने में कृतकार्य होता है। बिना विवाह के न तो इसे वेदमूलक "यज्ञकर्म' का अधिकार है, न लोक में उसकी सम्यक् प्रतिष्ठा है, न प्रजासमृद्धि, न धर्म-संग्रह है। जिस संस्कार के बल से वह अपनी अध्यात्म सम्पदा को आधिभौतिक जगत के फलक पर अधिदैवत प्रयत्नों से अर्जित करने में समर्थ होता है, वह संस्कार-विवाह संस्कार ही है। बिना इस संस्कार के पुरुष 'अर्द्धन्द्र' है। पूर्ण पुरुष (ईश्वर प्रजापति) के साथ सायुज्यभाव प्राप्त करने के लिए इस अर्धेन्द्रता की पूर्णेन्द्रता में परिणति अपेक्षित है एवं अर्धेन्द्र पुरुष की यह पूर्णेन्द्रता एकमात्र 'पत्नी' संयोग पर ही निर्भर है। पत्नी ही इसके अर्द्धाकाश को पूर्ण कर इसे पूर्णपुरुष के समकक्ष बनाती है। अर्द्धनारिश्वर की कल्पना भी इसी तथ्य की संकेतक है। इन्हीं सब कारणों के आधार पर महर्षियों ने इस विवाह संस्कार को 'आवश्यकतम' संस्कार माना है।

सामान्य दृष्टि रखने वाले लौकिक मनुष्यों की दृष्टि में तो 'विवाह' एक प्रकार का लौकिक कर्म है तथा वैषयिक तृप्ति का साधन मात्र है परन्तु एक आस्तिक, भारतीय की दृष्टि में तो विवाह दो आत्माओं के मध्य एक अलौकिक सम्बन्ध है। जो दो व्यक्ति इस संस्कार से दीक्षित होते हैं, उन दोनों की आत्मा एकरूप हो जाती है, शरीर मात्र पृथक् रहते हैं अतएव यह माना गया कि लोकान्तरों में भी दाम्पत्य भाव प्रवाहित रहता है। "सह धर्म चरताम्" के अनुसार विवाह एक ऐसा धार्मिक संस्कार है, जो कि अविच्छिन्न है। विवाह संस्कार के मौलिक रहस्य को जानने के लिए उसके तात्विक स्वरूप पर विचार करना आवश्यक हैं।

सम्वत्सर प्रजापति कश्यपाकार में परिणत हो कर ही प्रजासृष्टि में समर्थ होते हैं। सम्वत्सर मण्डल में व्याप्त कश्यप प्रजापति को सीमित करने वाला खगोल ही इन्द्र की पूर्ण व्याप्ति से पूर्णेन्द्र कहलाया है। "नेन्द्रादृते पवते धाम किञ्चन" (ऋक्. मं. 9/70/6) के अनुसार इस सम्पूर्ण खगोल में इन्द्रतत्व व्याप्त है। इस इन्द्रप्राण के 'अग्नि'- 'सोम' ये दो तत्व नित्य सहयोगी माने गये हैं। इन दोनों में से अग्नि के सहयोग से इन्द्रात्मक कश्यप प्रजापति सूर्यात्मा पुरुष-सृष्टि का प्रवर्त्तक बनता है एवं सोम के सहयोग से चन्द्रात्मना स्त्री-सृष्टि का उत्पादक बनता है। उसी कश्यप प्रजापति के आधे अग्निप्रधान सौर, भाग से पुरुष एवं आधे सोम प्रधान, चान्द्र भाग से स्त्री का विकास हुआ है, इसीलिए पुरुष को आग्नेय एवं स्त्री को सौम्या कहा गया है।

सम्वत्सर प्रजापति के 'अहः' तथा 'रात्रि' ये दो प्रधान पर्व हैं। इन दोनों का क्रमशः सूर्य तथा चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध माना गया है। अहः काल में सूर्य का तथा रात्रिकाल में चन्द्रमा का साम्राज्य है । सम्वत्सर का आधा भाग अहः काल है। और आधा भाग रात्रिकाल है। इन दोनों के समन्वय से ही अहोरात्र (दिन-रात ) लक्षण युक्त सम्वत्सर चक्र पूर्ण होता है, ( ऐ.ब्रा. 5/30)। कहने का अभिप्राय यह है कि सम्वत्सर का स्वरूप ऋत-अग्नि तथा ऋत-सोम के अन्न अन्नादात्मक यज्ञ सम्बन्ध से सम्पन्न हुआ है। अनि तेज है, सोम स्नेह है। तेज अहः है तथा स्नेह 'रात्रि' है। जिन्हें हम 'दिन-रात' कहते हैं, उनमें पार्थिव प्रजानुबंधी तेजः तथा स्नेह तत्वों का उपभोग हो रहा है। तात्पर्य यही है कि रात्रि से स्नेह तत्व एवं अहः से तेजोभव अभिप्रेत है। इन्हीं दोनों के समन्वित रूप का नाम सर्वं (सम्वत्सर) है, जैसा कि " द्वयं वा इदं सर्वं स्नेहश्चैव, तेजश्च । तदुभयमहोरात्राभ्यामाप्तम्" (शा.ब्रा. 17/5 ) इत्यादि 'शाङ्खायन' श्रुति से स्पष्ट है। "

पृथिव्यगुनत, अग्नीषोमात्मक, सम्वत्सरीय खगोल इस अहोरात्र के सम्बन्ध से 'दृश्य' 'अदृश्य' भेद से दो भागों में विभक्त हो जाता है। चान्द्रसौम्यप्राण-प्रधान (रात्रि) अर्द्धविष्वद् वृत्त से युक्त अर्द्धसम्वत्सर चक्र अदृश्य हैं, जबकि सौर आग्नेयप्राणप्रधान (अहः- दिन) अर्द्धविष्वद् वृत्त से युक्त अर्द्धसम्वत्सर चक्र 'दृश्य' सम्वत्सर चक्र है। अदृश्य सौम्य सम्वत्सर चक्र से स्त्री-सृष्टि का विकास होता है- अतएव 'तिरोभाव' शत ब्रा. 6/4/4/19) इनका स्वाभाविक धर्म माना गया है। दृश्य सम्वत्सर चक्र से पुरुषसृष्टि का विकास हुआ है, जिसमें व्यक्त भाव की प्रधानता है।

रात्रि में पृथ्वी का जहां अपना धर्म विकसित रहता है, वहां अहः काल में पार्थिव विवर्त्त सौरधर्म से आक्रान्त हो जाता है। पृथ्वी गार्हपत्य है, इसका अग्नि 'गृहपति' नाम से प्रसिद्ध है, अतएव 'गृहा वै पल्यै प्रतिष्ठा' (शत. 3/3/1/10) के अनुसार स्त्री को घर की प्रतिष्ठा माना गया है। गृह संस्था का सफल संचालन स्त्री पर ही अवलम्बित है। लज्जा, शील, विनयादि स्वाभाविक धर्मों से नित्य युक्त रहते हुए स्त्रियों को किन-किन धर्मों का अनुगमन करना चाहिए? इसका विस्तार से विवेचन विष्णुस्मृति आदि स्मृतिग्रंथों में द्रष्टव्य है।

पूरे विश्व वृत्त में 90-90-90-90 इस क्रम से चार पाद हैं, इसीलिए सम्वत्सर प्रजापति 'चतुष्पात्' कहलाए हैं। इसके दो पाद अग्नि तथा दो पाद सोम प्रधान हैं अतएव आधा दृश्य भाग पुरुष तथा शेष आधा अदृश्यभाग स्त्री का उत्पादक है। जब तक ये चारों पाद मिल नहीं जाते हैं, तब तक इनमें चतुष्पाद ब्रह्म की पूर्णता का उदय नहीं हो सकता। सम्वत्सर प्रजापति स्वयं यज्ञमूर्ति हैं। सम्वत्सर-यज्ञ का स्वरूप पूर्ण आकाश के आधार पर ही सम्पन्न होता है- अतएव यज्ञकर्म में दीक्षित होने से पूर्व पुरुष को पत्नी को अर्द्धांगिनी के रूप में ग्रहण करके अपने रिक्त अर्द्धाकाश की पूर्ति करनी पड़ेगी। (तै.ब्रा. 3/3/5) शत. 1/3/1/12. बृ. उ. 1/4/3 ) ।

निष्कर्ष यही हुआ कि, जिस पुरुषार्थ सिद्धि के लिए गर्भाधान आदि संस्कार होते हैं, अथवा शास्त्रोक्त यज्ञादि कर्मों का सम्पादन किया जाता है, वह पुरुषार्थ बिना विवाह संस्कार के कभी सिद्ध नहीं हो सकता। अपनी अध्यात्म संस्था को अधिदैवत संस्था के साथ मिला देना ही विवाह संस्कार रूपी यज्ञ का परम पुरुषार्थ है। पूर्णमदः के लिए 'पूर्णमिद' निष्पत्ति प्रत्येक दशा में अपेक्षित है। इस तरह अपने वैयक्तिक पुरुषार्थं सिद्धि के लिए उसको विवाह करना आवश्यक है।

देवऋण तथा पितृऋण नामक दो ऋण या उत्तरदायित्व मनुष्य पर और रहता है। इन्हें पूरा किए बिना भी उनका कल्याण संभव नहीं है। इन दोनों ऋणों का क्रमशः यज्ञ तथा प्रजोत्पत्ति से ही निराकरण होता है एवं उन दोनों ही साधनों का निर्वाह पत्नी सम्बन्ध पर निर्भर है। विवाह संस्कार के सम्बन्ध में विशेष नियमों का अनुपालन करना पड़ता है, जिनका गह्यग्रंथों तथा स्मृतिग्रंथों में विस्तार से निरूपण हुआ है। शास्त्रीय इतिकर्त्तव्यताओं के अतिरिक्त इस संस्कार में जिन मांगलिक देशाचार, कुलाचार आदि का ग्रहण हुआ है, वे सब भी 'ग्रामवचनं च कुर्युः' (पा.गृ.1/8/ 11 सूत्र)- 'अथ खलूच्चावचा जनपदधर्माः, ग्रामधर्माश्च तान् विवाहे प्रतीयात्' (आश्वलायनीय गृ.सू. 1/7/1) इत्यादि शास्त्र आदेश अनुसार नेग आचार भी ग्राह्य हैं। जिन निरर्थक रूढ़ियों से शास्त्रीय संस्कार के स्वरूप की हानि होती है, वे अवश्य ही त्याज्य हैं।

अग्निपरिग्रह

विवाह संस्कार के अनन्तर 'अग्रि परिग्रह' संस्कार किया जाता है, जिसकी इतिकर्तव्यता पा. सूत्र के आरम्भ में प्रतिपादित है। अग्रि का आत्मा में आधान करना ही 'अनि परिग्रह' है। आत्म संस्था ब्रह्म देव भेद से दो भागों में विभक्त है। उधर आहित 'होने वाली अग्नि भी 'पार्थिव'- ‘सौर' भेद से दो भागों में विभक्त है। पार्थिव गायत्राग्नि 'गार्हपत्याग्नि' है, सौर-सावित्राग्रि' आहवानीयाग्नि' है। गार्हपत्यानि 'भूताग्नि' है, आहवनीयाग्रि 'देवाग्नि' है। भूताग्नि' स्मार्त्त अग्रि' है, देवाग्नि' 'श्रौत अग्नि' है। इसी आधार अग्रिपरिग्रहलक्षण यह अग्न्याधान कर्म 'स्मार्त्त आधान' तथा ''श्रौत आधान' भेद से दो भागों में विक्त है। स्मार्त्त अग्नि के आधान से आत्म संस्था का ब्रह्मभाग संस्कृत होता है एवं श्रोत अग्नि के आधान से आत्म-संस्था का देव भाग संस्कृत होता है। देवभाग संस्कारक श्रोत अग्न्याधान का श्रोत संस्कारों में अन्तर्भाव है, अतएव इसकी इतिकर्तव्यता भी श्रौतग्रंथों में ही हैं एवं ब्रह्मभाग संस्कारक स्मार्त अग्न्याधान की स्मार्त्त संस्कार में गणना है। अतः इसकी इतिकर्त्तव्यता स्मार्त्त सूत्रों में प्रतिपादित हुई है। इन दोनों अग्नि परिग्रहों का पार्थक्य सूचित करने के लिए ही स्मार्त अग्नि-परिग्रह जहां ' आवसथ्याधान' नाम से व्यवहृत हुआ हैं, वहां श्रौत अग्रिपरिग्रह ' अश्याधान' नाम से व्यवहृत हुआ है। अस्तु, प्रकृत में स्मार्त्त 'आवसध्याधान' अग्रि परिग्रह का ही निदर्शन है।

घर के लिए वैदिक भाषा में ' आवसथ' शब्द प्रयुक्त हुआ है। चूंकि प्रकृत स्मार्त्त अग्नि आवसथ (घर) में प्रतिष्ठित किया जाता है, अतएव इसे 'आवसथ्य अग्नि' कहा जाता है। अग्रिपरिग्रह संस्कार से इसी गृह्य अग्नि का आधान होता है, अतएव यह कर्म ' आवसथ्याधान' नाम से प्रसिद्ध है। 'आवसध्याधानं दारकाले' (पा.गृ. सूत्र 1/2) के अनुसार विवाह कर्म के अनन्तर होने वाले विवाह के ही अङ्गभूत चतुर्थी कर्म की समाप्ति के पीछे सपत्नीक यह कर्म किया जाता है। 'दायाद्यकाले एकेषाम्' के अनुसार इसकी दूसरी वैकल्पिक समय दायविभाग के अनन्तर भी माना गया है। आवसथ्याधान एक ऐसा कर्म है, जिसके आरम्भ होते ही द्रव्यव्यय सापेक्ष पञ्चमहायज्ञादि करना आवश्यक हो जाता है।

इस विवाह संस्कार का मुख्य प्रयोजन संस्कार पात्र के ब्रह्मभाग में श्रौत अग्नि के आधान की योग्यता उत्पन्न करना है। पार्थिव अग्नि के आधार पर ही सौर दिव्य अग्नि का आधान होता है। उसी पार्थिवाग्नि के संग्रह के लिए दूसरे शब्दों में, अध्यात्म संस्था में पार्थिव अग्नि के अतिशयाधान करने के लिए यह अग्रिपरिग्रह संस्कार आवश्यक है। अग्रिपरिग्रह से दाम्पत्य में पवित्रता और उज्जवलता का सन्निवेश हो जाता है। इसीलिए विवाह को उद्वाह भी कहा गया है।

इति मंगलम्-शुभम्

डॉ. बोधिसत्व

डॉ. बोधिसत्व हिन्दी के कवि लेखक हैं। अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। सिनेमा और टीवी के लिए लेखन करते हैं! अभी अभी प्रकाशित "महाभारत यथार्थ कथा" एक चर्चित किताब है।

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