मातृका पूजन


आज से क़रीब १०,०००-१२,००० वर्ष पूर्व मानव सभ्यता ने खेती करना सीख लिया था जो शुरुआती दौर में धान (चावल), मक्का और गेंहूँ प्रधान थी। खेती के आगमन के साथ अब मानव स्वयं फसल (अनाज) उगा सकने में सक्षम था। इस उपलब्धि ने खेती के लिए उपयुक्त जगहों (ख़ासकर नदियों के किनारे) में घर बना कर बसने के लिए प्रेरित किया। अब मानवों का बड़ा समूह साथ में रहने लगा और इससे छोटी बस्तियों और फिर गाँवों का उद्भव हुआ। खेती और सुरक्षा के लिए जानवरों को पालना भी शुरू हो गया। इन्ही जानवरों से दूध दोहना भी शुरू हुआ।

ये वो समय था जब मानव एक दूसरे के संपर्क में ज़्यादा आने लगे और साथ ही अपने पालतू पशुओं के संपर्क में आने लगे। चूँकि अब खेती से अनाज की पैदावार बड़ने लगी तो भोजन के लिए शिकार के लिए जाना कम होता गया। खेती में जो मेहनत लगती थी उसमें मानव के शरीर के जोड़ों पर तनाव आने लगे जिससे “जोड़ों के विकार” शुरू हुए। साथ ही चूँकि अब भोजन चावल, मक्का और गेंहूँ पर ज्यादा केंद्रित था इससे शरीर में चयापचय के विकारों (जैसे मधुमेह) का भी जन्म होने लगा।

वहीं दूसरी ओर मानवों का बड़े समूहों में रहना और जानवरों को पालना बढ़ता गया जिसकी वजह से संचारी रोगों के प्रकोप बढ़ते जाने लगे।मानवों द्वारा मानवों में फैलने वाली बीमारियाँ और जानवरों से मानव को लगने वाली बीमारियाँ बड़ती चली गई। बीमारी से ग्रसित गाय और बकरी के कच्चे दूध के सेवन से भी बीमारियों बड़ने लगी। खेतों में चूहे और मच्छरों का प्रकोप भी बड़ा। इन सबके साथ टीबी, मलेरिया, प्लेग और कई जानलेवा बीमारियाँ बड़ती गईं। चयापचय के विकार भी मानव की बीमारी से लड़ने की छमता को कम करते रहे। ्राकृतिक आपदाएँ तो हमेशा से किसी के वश में नहीं रहीं। किसी इलाज के अभाव में मृत्यु दर बड़ने लगी।

शायद ये वही समय था जब मानव में ये भय और विश्वास समाया कि ये सारी आपदाएँ “कोई प्रकोप” है जो उनकी किसी भूल की वजह से हो रही हैं। ऐसा दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता है पर शायद यही वो समय था जब मानव को ये विश्वास आने लगा कि उसके पूर्वज इन आपदाओं से उसे बचा सकते हैं। इस कालांतर में मृत्यु के बाद शरीर को घर के किसी हिस्से में दबा (दफ़ना) दिया जाता था। धीरे धीरे इन पूर्वजों के किसी हिस्से (अवशेष) को बाद में बाहर निकाल कर उसकी पूजा की जाने लगी और आपदाओं से बचाने की गुहार लगाई जाने लगी।

जीवाणुओं के लगातार संपर्क में रहने के कारण इन जीवाणुओं के लिए मानव में प्राकृतिक प्रतिरोध छमता पनपने लगी। आपदाओं पर पूरा नहीं तो आंशिक नियंत्रण होने लगा। इसने इस बात पर विश्वास जगाया कि ये सभी पूर्वजों की पूजा से हो रहा है और ये पूर्वज उस बस्ती की रक्षा कर रहे हैं।यहाँ विश्वास और वास्तविकता का एक संगम होता है। और इस तरह धीरे धीरे पूर्वजों को देवताओं का दर्जा मिलता गया।इसी दौर में प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति को मनाया जाने लगा और उसे मनाने के लिए प्रकृति की विभिन्न रूपों में पूजा की जाने लगी (सूर्य, चन्द्र, अग्नि, भूमि, सागर, नदियाँ, कुंड, तालाब, वृक्ष, पशु आदि)। जिससे भी मानव को कुछ प्राप्त होता उसकी पूजा की जाने लगी। जिससे भी मानव को कोई ख़तरा होता उसे भी खुश करने का प्रयत्न किया जाने लगा।

समय के साथ अनुभवों को कहानियों की तरह लिखा और बताया जाने लगा जो आने वाली पीड़ियों ने सुना, पड़ा और विश्वास किया। पूर्वज देवता बने और समय के साथ इन बस्तियों/गाँवों/नगरों में जन्मी कुछ विभूतियों ने कुछ ऐसा किया कि उनमें ईश्वर और देवताओं का रूप दिखा। यही कालांतर में ईश्वर के अवतार कहे गए। रोम जैसी जगहों पर वहाँ के राजाओं ने ख़ुद को ईश्वर या ईश्वर का अवतार कहा।ये सभी रूप मिलने के बाद भी अपने पूर्वजों को देवताओं की तरह पूजने की आदिक़ालीन परंपरा चलती रही और आगे भी चलती रहेगी।

इसी श्रृंखला में “देवियों” का उद्भव हुआ। ये वो नारीशक्ति का रूप बनी जो परिवार/बस्ती/गाँव/नगर की चारों ओर से सुरक्षा करती हैं और किसी भी तरह की आपदा, प्रकोप और संकट से बचाती हैं।प्राचीन सभ्यताओं (जैसे सिंधु घाटी की सभ्यताओं) में “मातृका” और “मातृका पूजन” के प्रकार मिलते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि मातृकाएं अनार्य परंपरा की ग्राम्य देवियां हैं, तो वहीं दूसरी तरफ एक धारणा यह भी है कि यक्ष परंपरा से प्रेरित होकर मातृकाओं का उद्भव हुआ होगा। इन मातृकाओं की संख्या को लेकर भी अलग-अलग मत हैं, एक मत के अनुसार इनकी संख्या सात है जिनके आधार पर इन्हें सप्तमातृका कहा जाता है। वहीं कुछ स्थानों पर यह अष्टमातृका के रूप में पूजित हैं, विशेषकर नेपाल में।

आदिकाल से पूर्वजों की पूजा और आह्वान “देवता पूजन” और नारीशक्ति की पूजा और आह्वान “मातृका पूजन” के रूप में किया जाता है। किसी बालक के जन्म लेने पर “देवता पूजन” (रतवारे) किए जाते हैं। यज्ञोपवीत और विवाह के समय “मातृका पूजन” किया जाता है। इन पूजाओं में पूरा कुनबा साथ आता है और अपने कुल के देवताओं और/या मातृकाओं की पूजा करता है और प्रार्थना करता है कि कुल के पूर्वज (देवता) और मातृका कुल को किसी भी अनिष्ट से बचायें और सभी बाधा दूर करें। इसमें कुल के सबसे बड़े सदस्य देवताओं या मातृका पर घी की धारा अर्पित करते हैं और उस कुल के हर सदस्य एक दूसरे को अपने हाथ से छूते हुए एक पंक्ति बनाते है। इसे वशोधारा कहा जाता है। ये इस बात का प्रतीक है कि पूरा कुल एक दूसरे के साथ आत्मिक, भौतिक और आनुवंशिक रूप से जुड़ा हुआ है। अमूमन सभी संस्कृतियों में अपने पूर्वजों को किसी ना किसी रूप में याद करने या पूजने की रीति है।