विवाह का इतिहास (डॉ• दीपक चतुर्वेदी की कलम से)
शुरूआती दौर में जब सभ्यता का विकास होना शुरू नहीं हुआ था, मानव की दो मूलभूत आवश्यकता थीं: खाने के लिए भोजन और छुपने के लिए आसरा। तब संभोग स्वतंत्र था। मानव नर और मादा संभोग के लिए स्वतंत्र थे।
चूँकि सभ्यता का उद्भव नहीं हुआ था इसलिए नियम और पाबंदियाँ भी नहीं थीं। समय के साथ मानव सभ्यता का उद्भव हुआ। मानव ने अपना भोजन उगाना शुरू किया और मवेशियों को पालना शुरू किया। खेती से भोजन मिलने लगा, नदियों से पानी लेने लगा और मवेशियों से दूध दुहने लगा। इन सभी से सभ्यता का विकास शुरू हुआ और मानव समूहों में बस्ती बनाने लगा।
इसी समय में खेती की लिये ज़मीन पर अधिकार जमाना शुरू हो गया और साथ ही मवेशियों पर आधिपत्य का संघर्ष शुरू हुआ। शायद यही वो दौर रहा होगा जब मानव के अंदर “ये मेरा है या मुझे ये पाना है या मुझे इसे जीतना है” की भावना ने घर करना शुरू किया। यहीं से नर और मादा में एक दूसरे के प्रति इसी आधिपत्य की भावना ने जन्म लिया होगा। साथ ही नर के अंदर ये जानने की भावना ने जन्म लिया कि उसकी संतान कौन है और उसकी संतान पर उसका अधिकार होना चाहिए। चूँकि उस समय तक संभोग स्वतंत्र था इसलिए ये जानना नामुमकिन था कि कौन किसकी संतान है और नर के लिए ये और भी मुश्किल था। साथ ही बच्चों को जन्म देकर पालने की ज़िम्मेदारी अमूमन मादा की ही थी।
चूँकि सभ्यता जन्म ले रही थी और मानव बस्तियाँ बन रही थीं तो वो समय आ चुका था जहाँ कुछ ऐसे नियम बनें कि संभोग पर स्वतंत्रता कम हो ताकि नर और मादा को कुछ हद तक ये पता रहे की संतान किसकी है। शुरूआती दौर में कुछ ऐसे नियम बने कि अपने समूह (बस्ती) के बाहर संभोग पर पाबंदी लगाई लगी। धीरे धीरे एक बस्ती के अंदर भी स्वतंत्र संभोग पर पाबंदी लगाई गई। चूँकि तब तक भी एक मादा कई नर के साथ संभोग कर सकती थी इसलिये ये जानना अभी भी मुश्किल था कि उस मादा से जन्म लेने वाली संतान किस नर की है। उसमें वो बच्चा उस समूह और बस्ती का तो हो जाता था पर अभी भी उसके पिता के बारे में जानना मुश्किल था। इससे नर का अपनी संतान पर अधिकार जमाना अभी भी आसान नहीं हुआ। इस समस्या के समाधान के लिए मादाओं के स्वतंत्र संभोग पर पाबंदी लगना शुरू हुआ और एक मादा एक नर के साथ ही संभोग करेगी, ऐसा नियम बनना शुरू हुआ। इससे संतान की उत्पत्ति किस माता और पिता से हुई है, ये स्पष्ट होने लगा। संतान पर नर (पुरुष) का अधिकार होने लगा।
धीरे धीरे पुरुष उस स्त्री पर भी अधिकार जमाने लगा जिस स्त्री से उसे संतान की प्राप्ति हुई थी। पुरुष अपनी संतान और उसे जन्म देने वाली स्त्री पर तभी अधिकार जमा सकता था अगर वो इस बात का विश्वास दिलाता कि वो उस स्त्री का ख़्याल रखेगा और उसकी सुरक्षा करेगा। साथ ही संतान को पालने में स्त्री का साथ देगा। समय के साथ ये एक रीति बनती गई और पुरुष तथा स्त्री साथ आये और संतान को जन्म दिया और फिर साथ में उस संतान का पालन पोषण किया। इस समय मादा सिर्फ़ एक नर के साथ ही संभोग करती थी परंतु नर के ऊपर ये पाबंदी नहीं थी। इस कारण नर को कई मादाओं और संतानों का ख़्याल रखना पड़ता था। इस आधिपत्य की लड़ाई में कई नरों को मादा मिलती भी नहीं थीं।
ये वो दौर था जब सभ्यता विकसित हो रही थी। अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में विचार शुरू हो गया था। मानव अब “मैं” की जगह “हम” (अपने गुट/समूह/बस्ती) के बारे में सोचने लगा था। शायद यही वो समय था जब हर नर को मादा का साथ मिले और संतान की प्राप्ति हो के बारे में विचार किया गया और नर (पुरुष) में भी स्वतंत्र संभोग की पाबंदी लगाई लगी ताकि एक नर एक मादा के साथ रहे और अपनी संतानों का ख़्याल रखे। इस चलन से हर नर (पुरुष) को मादा (स्त्री) का साथ मिलेगा, ऐसी कल्पना की गई जो कालांतर में बहुत हद तक सच साबित हुई।
शुरूआती दौर में ये आपसी रज़ामंदी से होता रहा पर शायद इसमें आपसी समस्याएँ आती रहीं और इस बात की कोई बाध्यता नहीं थी कि वो सदैव साथ रहेंगे और किसी और स्त्री और पुरुष की तरफ़ आकर्षित होकर संभोग के लिए नहीं जाएँगे। इस समस्या के निवारण के लिए “पुरुष और स्त्री के इस तरह साथ आकर रहने, संभोग करने और संतानोत्पत्ति करने” की प्रक्रिया को एक रीति का रूप दिया गया और उसमें अपने समूह और पूर्वजों को साक्षी बनाया जाने लगा। बाद में देवी, देवताओं और प्रकृति को भी साक्षी बनाया जाने लगा। शायद यहीं से “विवाह” की रस्म शुरू हुई होगी।
चूँकि पुरुष ने स्त्री की सुरक्षा और संतान को पालने की जिम्मेदारी ली थी तो यह ज़रूरी था कि वो स्त्री उस पुरुष के साथ रहे। शायद यहीं से “विदाई” की रस्म शुरू हुई होगी।कालांतर में यही पिता अपनी संतान के लिए स्वयं उचित साथी की तलाश करने लगा। पुत्री के लिए वर और पुत्र के लिए वधु। विवाद करके पुत्री को दूसरे के घर भेजना था और वधु को अपने घर लाना था। अपनी पुत्री दूसरे घर में प्रसन्न रहे उसके लिए पिता हर संभव ज़रूरत का सामान देने लगा। बाद में इसी भावना ने दहेज रूपी कुरीति को जन्म दिया।
स्त्री अपने माता पिता और परिवार को त्याग कर नये घर और परिवार में आकर रहने लगी। ये सिर्फ़ एक भोग की वस्तु और संतानोत्पत्ति का ज़रिया बन कर ना रह जाये इसके लिए इसके अधिकार बड़ाये गए और हिंदू सनातनी सभ्यता में विवाह के समय पुरुष (पति) से “वचन” लेने की परंपरा शुरू हुई। आज भी विवाह के दौरान ये “सात वचन” लिए जाते हैं।
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या: वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।
यहाँ कन्या वर से पहला वचन मांग रही है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा करने जाएं तो मुझे भी अपने संग लेकर जाइएगा। यदि आप कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धार्मिक कार्य करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग (बांई ओर) में बिठाएं. यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
द्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:, वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
दूसरे वचन में कन्या वर से मांग रही है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा परिवार की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात, वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:, वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
चौथे वचन में वधू ये कहती है कि अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा, वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
पांचवें वचन में कन्या कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाह आदि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी राय लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
षष्ठम वचन
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत, वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!
छठवें वचन में कन्या कहती है कि यदि मैं कभी अपनी सहेलियों या अन्य महिलाओं के साथ बैठी रहूँ तो आप सामने किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। इसी प्रकार यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार की बुराइयों अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
सप्तम वचन
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या, वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
आखिरी या सातवें वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को मां समान समझेंगें और पति- पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
हिन्दू शादी की परंपरा ये मानती है कि पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। विवाह का शाब्दिक अर्थ है वि + वाह = विवाह , अर्थात उत्तरदायित्व का वहन करना या जिम्मेदारी उठाना। भारत में सनातनी और वैदिक संस्कृति के अनुसार 16 संस्कारों का बड़ा महत्व है और विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है। पाणिग्रहण संस्कार को ही सामान्यतः विवाह के नाम से जाना जाता है।
सादर, डॉ• दीपक चतुर्वेदी